Wednesday 31 October 2012

तब तक ही सही ये सपने

आपके लिए  और सिर्फ आपके लिए,

                    मैंने भी कुछ सपने सजाये है ,

मैंने भी कभी कुछ सोचा था ;

                      मैंने भी कभी कुछ सपने सजाये थे ,

आपके लिए और सिर्फ आपके लिए।

                        क्या सपने सजाना गुनाह था ,

क्या सपनो को देखना गुनाह था ,

                          नहीं ,तो देखा था मैंने भी सपने ;

आपके लिए और सिर्फ आपके लिए।

                           जब तक सपना नहीं सजता ,

जब तक नीद नहीं खुलती ,

                           तब तक सिर्फ तब तक देखने दे सपने  ;

आपके लिए और सिर्फ आपके लिए . .

                           सपने में सब कुछ ऐसा लगता है,

जैसे की वाश्ताविकता के पास हो,

                              इतने पास की कभी दूर न लगे;

तब तक ही सही ये सपने ,

                             आपके लिए और सिर्फ आपके लिए .

मैंने भी कुछ सपने सजाये ,

                           मैंने भी कुछ सोचा था आपके लिए ;

आपके लिए और सिर्फ आपके लिए .

                             ----------------------- 

Sunday 12 August 2012

आज के युवाओ में भटकाव का कारण

    1.                     इधर कुछ अर्सो से देश के चाहे एलोक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट मिडिया उसमे प्रमुखता से समाचर आते रहते  है जिस में से ऐसा लगता है की हमरे  देश  के युवा वर्ग निचितरुप से रास्ता से भटक गया  है .उसमे अपनी सभ्यता ,संस्कृतियों,और मान्यताओ की कोई अहमियत नहीं रह गई है .ऐसा नहीं  है की ये बात देश के सभी युबाओ पर सामान रूप से लागु होती है . हमारे देश के बहुतायत में युबाओ में देश समाज और पारिवारिक संस्कार भरी है जिनके बदौलत हमारा देश अभी भी अपनी सभ्यता ,संस्कृति और मान्यताओ को न केवल सहेज कर रखे हुआ  है बल्कि अपनी पीढ़ी के साथ साथ आगे भी बढ़ाते जा रही है .

                    समाज ,देश या परिवार की अच्छाई या बुराई की पहचान के लिए उस समाज ,परिवार या देश की  कुछ लोगो को उदाहरण के लिये लिया जाता है और उसी के अधर पर उसका आकलन किया जाता है .हमारे देश की युबा बर्ग को बदनाम करने के पीछे कुछ भटके युबाओ का हाथ होता है लेकिन बदनामी तो युबा बर्ग की होती है .तो ऐसी हालात में युबा बर्ग के अन्य सदस्सो की जिम्मेबारी बनती है की वे अपने बीच भटके साथियो को सुमार्ग पर लाने के  लिए आगे आये.
                      अब आइये हम देखते है की आज के भटकते युबा बर्ग के  पीछे वह कौन से कारण है जिनके चेलते युबा समाज के चन्द युबा अपनी सही रास्ते से भटक गए है .जब हम इसके पीछे कारणों को देखते है तो मुझे तो उन युबाओ के भटकाव के पीछे उनका कम मगर उनके माता -पिता का ज्यादा हाथ नजर अता है .अब आप कहेगे की भटकता तो युबा है तो ऐसी हालात में उनके माता पिता को कैसे दोष  दिया जा सकता है .तो आइये हम इसकी कारणों का परताल करते  है ताकि आप मेरी तर्क को सही करार दे सके ---------
                        कारण न० १ -- हमारे  परिवार की संरचना पहले संयुक्त परिवार की थी .ऐसी हालात में परिवार के सभी सदस्य एक दुसरे के बच्चों का ख्याल अपनी बच्चों के तरह रखते थे .माता पिता अगर बहार भी रहते तो परिवार के अन्य लोग बच्चों के पढाई , उनके साथी -सांगतो और उनकी अन्य समस्याओ पर कड़ी नजर रखते थे .इस कारण जब वे युबा बनते थे तब तक तो वे पारिवारिक मूल्यों , आपसी समझ ,भाईचारा और सहिष्णुता की ज्ञान परिवार से पा लेते थे .उनमे सारी पारिवारिक गुणों की भरमार हो जाती थी .
                            आजकल हमारे समाज में संयुक्त परिवार का टूटना एक जबरदस्त कारण मैं मानता हूँ .
                         कारण न० २ --एकल पारिवारिक पद्धति का विकास .एकल परिवार में पति  पत्नी और बच्चे .उनकी सोच समझ अपने  तक ही सीमित रहती है .उनमे पारिवारिक मूल्यों जिनके रहने से उन्ही जीवन के सफर को तय करना है की लम्बी सफर के लिए आबस्यक शिक्षा नहीं मिल पाई.उनमे अपने तक सिमित रहने और अपनी भलाई , उन्नति तक की ही सोच का विकास हुआ .जो युबाओ के भटकाव का कारण बना .इन्ही पारिवारिक मूल्यों और स्थापित मान्यताओ के कारण यह कहा गया है की '' परिवार ही बच्चों की प्रथम पाठशाला है ''.
                            कारण न० ३ --- माता पिता का कामकाजी होना .आज के समाज  में हर व्यक्ति अधिक से अधिक धनार्जन अपनी वुधि और छमता से करना चाहता है .इसके लिय पति पत्नी दोनों पढ़े लिखे होने के कारण नौकरी करना चाहते है और करते भी  है ,जिसके कारण उनके पास समय नहीं होता की वे अपने बच्चो की पढाई पर पूरा ध्यान दे सके .उन्हें तो बस ये फिक्र रहती है की बच्चो की पढाई में किसी सामान की कमी न हो .उन्ही उनकी पढाई पर ध्यान देने का समय नहीं होता  है.अपने बच्चो की पढाई के प्रति उदासीनता भी बच्चो को गलत रह ले जाता है  लेकिन उसे भी माता पिता नजरंदाज कर   देते है .
                      उस परिवार में तो आर्धिक सम्पन्ता तो अजाती है लेकिन उनके बच्चो में पारिवारिक मान्यताओ ,मूल्यों और शिक्षा का उस  स्तर तक विकास नहीं हो पता है .
                        मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है की सभी कामकाजी माता पिता  के बच्चे पर यह फार्मूला लागु होता है .इसमे भी जो माता पिता अपने बच्चो की पढाई और पारिवारिक मूल्यों और संस्कारो की शिक्षा देते है उन मामलो पर यह लागु नहीं होता  है .लेकिन सभी कामकाजी माता पिता ऐसा ही करते है यह भी लागु नहीं होता है .
                        कारण न ० ४ ----पेरेंट्स के द्वारा अपने बच्चों को बिना सोचे समझे महगे से महगे आधुनिक गदट्स को मुहैया करना .चाहे मोबाइल ,लेपटॉप हो  या मंहगे बाएक येहाँ तक की फोर व्हीलर तक अपने बच्चों को स्कूल के स्तर की पढाई होते होते सुलभ करना अब एक सामान्य सी हो गयी है .इसके साथ साथ अब बच्चों को एक मुश्त मोटी राशी प्रति माह पॉकेट मनी दी  जाती है जिससे उनमे बिना सोचे समझे खर्च करने की प्रविर्ती का बिकाश होता है .उन्हें यह समझ नहीं आता की पैसा कितना कठिन  से कमाया जाता है.
                                माता पिता  द्वारा बच्चों  को कभी नहीं समझाया जाता है की पैसे कमाने में क्या तकलीफ होती है .
                            इस कारण मेरी नजर में बच्चों को  बहकाने में उनके माता पिता का  सबसे ज्यादा हाथ होता है. वे बिना सोचे समझे पैसा देते है और यह नहीं देखते है की उन पैसे का उनके  बच्चें सही उपयोग कर रहे है  या  नहीं.
                            अगर बच्चों की चाल ढाल खारब हो जाता है और अगर कोई सम्बन्धी या आस परोस  का ब्यक्ति उन्ही उनके बच्चों  की शिकायत करते है तो उन बच्चो के माता पिता उसे उसी आदमी को भला बुरा कहते है .अगर उन माता पिता इस शिकायत को ध्यान दे कर अपने बच्चों पर नजर रख सुधार की कोशिश करते तो उनके बच्चे नहीं बीगड़ पते .
                           इसका एक बहुत  बड़ा कारण है की इस भ्रष्टाचार के युग में अगर गौर करेगे तो साफ साफ पता चलेगा की एन बिग्रैल बच्चों में अधिकतर उनके बच्चे है जिन्होंने गलत तरीके से धन कमाया है .उन्हें गलत तरीके से धन कमाने से फुर्सत ही नहीं है की यह देखे की उनके बच्चे क्या करते  है .उनकी पढाई कैसी चल रही है .उनकी संगती कैसे लडको के साथ है .उन्हें अच्छा और ख़राब की शिक्षा दे सके.
                                  इस कारण मैं उनके माता पिता का ज्यादा दोष मानता हूँ .
                             कारण न ० ५ ----  इन्टरनेट का दुष्परिणाम .इन्टरनेट आज के  समय का एक आवश्यक एवं अहम् हिस्सा पढाई का हो गया है . इन्टरनेट पर पढाई और ज्ञान की भरमार के साथ साथ आपत्ति जनक सामग्रियो की भी भरमार है .आज के माता पिता अपने बच्चों को कोम्पुटर और इन्टरनेट की सुबिधा को मुहैया इस कारण से  कराते है की  बच्चों की पढाई में काफी सहयोग मिलेगा. लेकिन ऐसा भी देखने को मिला है की बच्चों के द्वारा इसका दुरूपयोग किया जा रहा है.यह अलग बात है की  परेंट्स को इन मामलो पर फी ध्यान देना चाहिए .लेकिन इससे अधिक आवशक यह है की बच्चें इन्टरनेट पर अनावश्यक आपत्तिजनक सामाग्रियो से अपने को दूर रखे .
                            कारण न० ६ ---- प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया .आजकल टेलीविजन पर ऐसी ऐसी प्रतिविम्बो ,ताशविरो, बिग्यापनो को दिखाया या छपी जाती है की इसका भी काफी असर युबा मानसिक पर पड़ती है जो इनको भटकाओ में काफी सहायक होता है .
                                   मैंने अपने  इस लेक के माध्यम से जहाँतक मैंने देखा समझा और महसूस किया की हमारे युवा जो आज गलत राह पर जा रहे है उनके पीछे क्या कारण है ,तो मैंने जिन कारणों को पाया उसी की वर्णन किया है .अगर कोइ सुझाव या टिप्पणी पाठकों की हो तो वह स्वागत योग होगा .       

Sunday 22 April 2012

अंध विश्वास से बचे

                     मै एक साधारण परिवार से आता हूँ .मेरा परिवार मेरे गांव का साधारण  ही सही  लेकिन पढ़ा लिखा  परिवार माना जाता है . मेरी पढाई लिखाई पास के ही गांव के स्कूल में हुई .उस समय के स्कूल प्रबंधन समिति द्वारा संचालित  होती थी .उस संचालन समिति के सदस्य मेरे पिता जी हुआ करते थे .इस कारण स्कूल में मेरी पढाई पर अद्यापक काफी सहायता भी किया करते थे .मेरे पिताजी आशपाश के इलाके में काफी सम्मानित व्यक्ति थे .इसका एक कारण यह भी था की वे उस इलाके के पोस्ट ऑफिस के हेड पोस्टमास्टर थे जिनके छेत्र में अभी के करीब करीब आठ दस गांव आया करती थी .
                       पुरानी शिक्षा पद्यति में वर्ग सात तक सारी विषयों को एक साथ पढाया जाता था . जैसे  ही विद्यार्थी आठवी कच्छा में दाखिला लेता था उसे कला , विज्ञानं या वाणिज्य  विषयों में से किसी एक विषय को चुनना रहता था .इसी नियम के तहत मै भी कच्छा आठ में पहले तो विज्ञानं विषय का ही चुनाव किया था लेकिन कच्छा  दस में आने के बाद मैंने विज्ञानं विषय से हट कर कला विषय का चुनाव किया . अक्सरहा वर्ग दस में इस  प्रकार के विषय वदलने की इजाजत नहीं होती थी लेकिन चुकी मेरे पिताजी इस स्कूल के मैनेजिंग कमिटी के सदस्य थे इस  कारण मुझे इसकी अनुमति मिल गई .
                        वर्ग दस उस समय मेट्रिक कहलाता था ,और उसकी परीक्षा बिहार विद्यालय परीक्षा समिति लिया करती थी ,मैंने भी परीक्षा में सामिल होगया .परीक्षा की परिणाम समाचार पत्रों में छपा करती थी . उस समय की बिहार में  आर्यावर्त ,प्रदीप हिंदी की और दी इंडियन नेसन एवम दी सर्च लाइट अंग्रेजी में प्रमुख रूप से निकला करती थी .यह  साल १९६६ की बात है .इसी साल के जून माह में मैट्रिक परीक्षा की रिजल्ट आनी थी .तारीख तो ठीक ठीक याद नहीं है .
                          उस साल के एक साल पूर्ब मेरे बड़े भाई की शादी तिन चार किलो मीटर दूर शहर के सटे एक ग्राम में हुआ था .उह ग्राम अब मेरे शहर के एक वार्ड में तब्दील हो गया है . यह अलग बात है की अब मेरा ग्राम भी उस शहर का वार्ड संख्या १ और २ बन गया है .मेरे बड़े भाई के बड़े साडू पटना सचिवालय के वित्त विभाग में काम करते थे और पटना में ही रहते थे ,वे मेरे ग्राम बड़े भाई और भाभी से मिलने आये थे और संजोग की बात थी की उसी दिन समाचार पत्रों में मेट्रिक की रिजल्ट भी निकने बाली थी और मुझे भी पहले से तय समय के अनुकूल सबेरे पास ले रेलवे स्टेशन बेगुसराई पेपर लूटने जाना था . लेकिन यह एक संयोग था की जब मै निकलने  बाला था तभी मेरे बड़े भाई ने मुझे बुलाया और कहा की तुम रिजल्ट देखने जाने के पूर्ब बाजार जाकर दो किलो मिट ले आओ .अब मेरे लिए अजब परिस्थिति हो गई ,क्योकि मै उन्हें मना भी नहीं कर सकता क्योकि उन्होंने मुझे यह आदेश अपने साडू के सामने दिया था .जब की वे भी जानते थे की आज मेरी रिजल्ट आने बाली है .लिकिन मैंने भी अपने बड़े भाई की बात को माननातय किया और बाज़ार जा कर उस कार्य को कर डाली .इसका एक कारण था की मैं अंधविश्वास को नहीं मानता .ऐसी मान्यता चली आ रही है की जब आप कोई शुभ कार्य करने चलते है तो इन बातों के साथ साथ कुछ अन्य चीजों का नाम लेना शुभ नहीं माना जाता है .चुकी मैं इन मान्यताओ को नहीं मानता अतः मैं रिजल्ट की पेपर लूटने चल पड़ा .उस समय मेरे मन में यह बिचार आया की पेपर में जो रिजल्ट होगा वह तो आहिगाया होगा तो फिर अब सोचना क्या .जो होगा देखा जायेगा अब आप कहेगे की पेपर लूटने क्यों .तो सुनिए ,उस समय पेपर जब रेलवे ट्रेन से स्टेशन पर आती थी तो सभी लडको और उनके अभिभावक उस पेपर को लुट लेते थे  और उस लुट में उस पेपर के क्या दुर्दशा होती होगी आप सोच सकते है .पेपर के एक पन्ना कई भाग हो कर कई आदमियो के हाथ चली जाती थी .
                          इस बात से हम चार साथी अबगत थे फलतः हम सभी साथी सजग थे .जैसे ही स्टेशन पर ट्रेन रुकी और पेपर प्लेटफोर्म पर गिरा हम लोग उस पर टूट पड़े और हमलोग की खुश किश्मत थी की हमारे एक साथी के हाथ में एक प्रदीप पेपर आया और हमलोग बगल के एक गाछी में भागे .हमलोग अपने स्कूल के नाम को खोजने लगे .मेरे कहने पर मेरा एक साथी निचे से रिजल्ट देखने लगा . उस समय मुझे काफी दुःख हुआ जो मेरे तीनों साथियो से मुझे ज्यादा लगा .  उस का कारण था की उस रिजल्ट में केवल मै ही पास हुआ था और मेरे तीनों साथी नहीं .आप को आश्चर्य होगा की मेरे उन तीनों साथी ने काफी पूजा कर माथे पर तिलक कर अपना रिजल्ट देखने मेरे साथ चला था .मैंने उसे चलने के पूर्ब मिट लाने के बात नहीं कही थी .
                          उस दिन से मैंने मानलिया की आप अगर मिहनत करेगे तो आप को सफलता अवश्य मेलेगी .भगवान भी उन्ही की मदद करता है जो आपनी मदद खुद करता .जो मिहनत करेगा उसे सफलता जरुर मिलेगी . गीता में भी कहा गया है की आप अपना कर्म करे फल की चिंता नहीं करे .कर्म के अनुसार मनुष को फल अवश्य मिलेगी .
                          मैं इसी बात को मानते हुये सरकारी सेबा में आया और पटना सचिवालय के कई बिभागो में राजपत्रित पद पर कार्य करते हुये सेबा से निबृत होगया .
मैंने अपने ग्राम या शहर का नाम नहीं बताया .तो चलिए मै बताता हूँ की मै बिहार राज्य के बेगुसराई जिला के संघौल ग्राम जो अब बेगुसराई जिला नगर निगम का बर्ड संख्या -१ और २ है, का स्थाई निवासी हूँ .

Monday 13 February 2012

तुम किधर जा रहे हो ---

                           हमलोग जिस सामाजिक परिवेश में रहते  है ,उसमे एक कहाबत काफी प्रचलित है के '' पढ़ें गो  लिखेगो तो हो गे नवाब ''. अर्थात अगर तुम पढ़तें  हो तो तुम्हे भविष्य में जीवन के सारी खुशिया प्राप्त होगी . बचपन में इस कहाबत को कई बार अपने बड़ों  से सुन चूका हू . उस एक ऐसा कहाबत है जो हर समय में सार्थक साबित होता है .
                            कोई बच्चा जब पढता है तो उसके माता  पिता एवं परिवार के अन्य बड़े सदस्यों की  यह ख्याहिश रहती है के आगे चल के वह  बच्चा काफी उंच्या पादो  पर असिन हो और अपने काबिलियत /सूझ बुझ से न केबल अपने परिवार / समाज का बल्कि अपने देश की  भलाई करे .उनके इस कारनामे से समाज /देश की काफी उन्नति हो . अगर किसी का बच्चा /बच्ची कोई ऐसा काम  करता है तो ,उससे न केबल उस माता पिता या  परिवार का नाम रोशन होता है बल्कि वह  अपने इस  प्रकार  के कारनामे से अपने पुर्बज्जो की भी नमो को आबाद करता है  जिसकी गूंज सदियो तक गूंजता रहता है .
                             परन्तु काश मेरे देश के चंद प्रमुख पढ़े लिखे लोग अगर इस  बात  को ध्यान में रखते तो इससे न केबल उनका बल्कि इससे समाज /देश का काफी भला  होता .
                            इन दिनों हमारे देश के अंदर क्या प्रान्त क्या देश के पैमाने पर ऐसी ऐसी घोटालों/भ्रष्टाचार की जाल बुनी पड़ी है जिससे ऐसा लगता है  की हमारे  देश में इन घोटालों की एक ऐसी हबा चल गई है की हर आदमी अपनी पद/हैसियत के आधार  पर घोटाला /भर्ष्टाचार करने लगा तथा उस लिस्ट में अपना नाम सामिल करने को तत्पर है .
                             आए दिनों समाचार पत्रों में ऐसे पुरानो एवम नए भ्रष्टाचार के समाचारों से समाचार पत्र /दूरदर्शन के समाचार भरे पड़े रहते है .इस कारण अब तो सामान्य जनता को या सामान्य सम्बेदनशील नागरिक को समाचार पत्रों के पढ़ने या दूरदर्शन /रेडियो पर समाचार पढ़ने/देखने या सुनने की आदत काफी कम होती जा रही है .
                              समाचार पत्रों /दूरदर्शन पर या रेडियो पर समाचारों को  पढ़ने ,देखने या सुनने में एक बात की आशंका हमेशा बनी रहती है की अब किस प्रकार की घोटालों/भ्रष्टाचारो को जानकारी  मिलनेवालीहै .आप जितने भी प्रकार की घोटालों चाहे उसका प्रकार जो भी हो ,को  ध्यान से देखेगे तो एक मामले में आपको समानता मिलेगी ,चाहे वह घोटाला चारा का हो , आदर्श सोसाइटी घोटाला , कोमंवेल्थ घोटाला , अलकतरा घोटाला , खनन  घोटाला , बर्दी घोटाला , तबुज़ घोटाला , या अन्य कोई भी घोटाला हो ,आपको स्मरण हो तो , एक बात की निश्चिन्त रूप से समानता देखने को मिलेगी को सभी घोटालों /भर्ष्टाचार काफी पढ़े लिखे और देश /समाज के काफी उच्च पदों पर आसीन ब्यक्ति लिप्त है .इन में से कोई ऐसा घोलालेबाज या भ्रष्टाचारी नहीं है जो गांव , देहात का गरीब ,अनपढ़ और मुर्ख ब्यक्ति हो .इन घोटालों बाजो को देख कर तो ऐसा अब स्पस्ट होने लगा है की यद्यपि ऐसा उधाहरण कम है , की जो ब्यक्ति जितना ऊंच्चा पद पर है ,जितना पढ़ा लिखा है ,वह ब्यक्ति उतने बढे घोटालेबाज,भष्टाचारी हो सकता है . समाज /देश में जब तक उक्त घोटालेबाज को कोई ऐसी सजा भी नहीं मिलती क्योकि जितना बढ़ा घोटाला उतनी बढ़ी पहुच भी उनकी बन जाती है ,जिससे समाज को एक अच्छा सन्देश जा सके और लोग इससे दुरी बनाए .
                                  यद्यपि काफी उच्च्य स्तर के पढ़े लिखे उचे पदों पर आसीन घोटालेबाजो /भष्टाचारी की संख्या कम है ,इने गिने है ,लेकिन उनसे तो हमारा समाज /देश कलंकित होता है . स्मरण हो की जब हम खाना बनाते है तो वर्तन में रखे सरे चावलों को देख कर नहीं कहते है की चावल पक्का है या  नहीं .इसके लिए तो  एक -दो चावल के दानो को ही देख कर कहा जाता है की वर्तन में पक्क रही चावल पक्के है या नहीं .ऐसे पढ़े लिखे उच्च स्तर पदों पर आसीन घोटालेबाजो से समाज /देश को क्या सीख मिलेगी . इनसे तो हमारे देश /समाज का वह नागरिक जो भोला ,सदा जीवन जीने बाला और आपनी आमदनी के अधीन ही  अपनी जरूरतों को रख कर जीने का आदि है और उसी में अपनी जीवन की सारी खुशी खोज पता है ,अच्छा है .कम से कम जनता की गाढ़ी कमाई का घोटाला  तो नहीं करता है . 

Sunday 1 January 2012

संयुक्त परिवार --अपेक्षाओं / चाहतो से दूर

                     पूर्व में जब संयुक्त परिवार में लोग रहते थे तो उस प्रकार की पारिवारिक व्यवस्थाओ पर इतना गाढा विश्वास था की इस प्रकार की पारिवारिक व्यावस्था के  विषय में लोग अन्यथा कभी कोई भावना अपने दिल दिमाग पर  लेने  की सोचते भी नहीं थे .संयुक्त परिवार की परिकल्पना की निर्भरता मुख्य रूप से इस बात  पर थी . इसी सोच पर निर्भर करती है की संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों के बीच एक ऐसा तालमेल हो जिसके कारण वे किसी एक सदस्य की निजी समस्या या परेशानी तथा उनकी खुशी पुरे परिवार की समस्या या खुशी बन जाय.इस प्रकार की पारिवारिक व्यवस्था में हर सदस्य अपने अपने सौंपे गए कार्यों को किया करते है . पुरुष एवंम महिला दोनों सदस्यों के कार्यों का निर्धारण उनकी क्षमता के आधार पर परिवार के प्रमुख्य निर्धारित किया करते थे .
संयुक्त परिवार का अस्तित्व अभी भी भारतीय सामाजिक संरचना में देखने  को मिलता है  .इस प्रकार की परिवार में परिवार के सभी सदस्यों का समन्यव एवं समग्र विकास देखने को मिलता है . ये अलग बात है की जो लोग संयुक्त परिवार की संरचना एवं परिकल्पना में विश्वास नहीं करते या जिनकी इस पारिवारिक संरचना को देखने का अवसर नहीं मिला वे लोग उसका रसास्वादन नहीं किये .वैसे लोग संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल पारिवारिक संरचना या  व्ववस्था को ही अधिक सम्यक एवं व्यक्ति के विकास का अच्छा विकल्प मानते है .हलाकि उनकी सोचने का जो भी अंदाज़ हो या हो भी तर्क हो उससे भी इंकार नहीं किया जा सकता .लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है की संयुक्त परिवार में परिवार के सदस्यों का विकास नहीं होता है . संयुक्त परिवार में परिवार के सदस्यों की विकास की गति कुंठित या मलिन नहीं  होती है . मेरा मानना है की इससे उनकी विकास की गति या उनकी चमक ओर तीव्र होती है . यह भी सर्व सत्य है की इस प्रकार के परिवार की विकास में कुछ सामान्य सिद्धांत या सामान्य ,मान्यता है जिनसे परिवार के सभी सदस्यों को दूर रहने होते है , इस परिवार के सदस्यों को एक  दो शव्दों के धार से जितनी दूर रहेगे ,उनका संयुक्त परिवार उतना ही प्रबल और सफल होगा . ऐसा मेरा मानना है . हो सकता है अन्य लोगो की भावना या सोच इससे नहीं मिलती हो ,लेकिन अगर वे लोग जो इस सोच से अलग सोच या विचार रखते है अगर इस शव्द की गहराई एवं मारक क्षमता पर नजर डालेगे तो उन्हें उसकी मारक क्षमता का असर अवश्य सुनाई पड़ेगी.अब आप कह सकते है की वह कौन सी भावना है जिससे संयुक्त परिवार के सदस्यों को थोड़ी दुरी बनाये रखनी चाहिए . इस भावना से जितनी दुरी होगी वह संयुक्त परिवार उतना ही सफल और सवल होगा .वह शव्द या भावना है 'अपेक्षा या चाहत '.(expectations & desire ) जो हमेशा दूसरों से की जाने वाली  होती है .
   मै यह नहीं कहता की संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच  कोई  अन्य सदस्यों से कोई अपेक्षा expectations या चाहत desire की भावना नहीं रखनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए . मै  ऐसा समझता हू की संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच अगर व्यक्तिगत अपेक्षा या चाहत की  भावना प्रवाल होगी तो एसे परिवार की निर्भरता की सीमा घटती जायेगी . यह सही है की अपेक्षा या चाहत के कारण ही मानव ने कई बड़े बड़े अविष्कार किये है .कई उन्नत ,उपयोगी वस्तु ,साधन, समाज को दिया है . इसप्रकार की अपेक्षा  जन विकास के लिए आवश्यक थी जो किया . यहाँ भी उन अविष्कारकर्ता या वैज्ञानिक की भावना अपने स्व  विकास तक सिमित या सोच नहीं था या रहता है वल्कि वे तो समग्र समाज देश और विश्व की कल्याण या उनकी सुख सुविधा को ध्यान में रख कर उस प्रकार की आविष्कार की अपेक्षा रखते है या करते है  .
अपेक्षा या किसी से चाहत भावना का व्यक्ति के जीवन में एक बड़ा ही अहम महत्व होता  है . लेकिन यह भावना तब काफी दुखदाई हो जाती है जब कोई आदमी या संयुक्त परिवार का सदस्य दूसरों से अपने लिए यह  अपेक्षा रखता है की मै कुछ दूसरों के लिए करू या न करू परिवार के दूसरे सदस्य मेरे को करे .ऐसा करने के पीछे यह भावना रहती है की या  तो मै परिवार का बड़ा सदस्य हू या किसी कारन के महत्व पूर्ण सदस्य कमाई या पद के कारन हो .जब वह सदस्य अपने को संयुक्त परिवार के अन्य सदस्व से उपर मानने लगा हो .उनकी भावना हो जाती है की परिवार के अन्य सदस्य उनकी सारी बातों को माने उनकी सुख सुविधा का ख्याल रखे भले ही वे सज्जन अन्य सदस्यों की इन भावनाओ का ख्याल नहीं रखते हो तभी उनकी यह अपेक्छा या चाहत जव पूरी नहीं होती है ,कष्ट का कारण बन जाती है जो संयुत्क्त परिवार की डोड मै एक गाठ का कारण वन जाता है जो वाद में एक बड़ा नासूर वन जाता है और पारिवारिक संरचना को धीरेधीरे समाप्त की और ले जाता है ..
यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा की  अपेक्षा हमेशा दूसरों से किया जाता है ,जबकि स्वपेक्षा आपने से की  जाती है .हमलोग दूसरों से  अपेक्षा तो रखते है लेकिन अपने अंदर नहीं झाकते है की मैंने दूसरों के लिए  क्या किया .संयुक्त परिवार में भी जब कोई सदस्य इसी भावना से पीड़ित हो जाता है तो संयुक्त परिवार की डोर  में गांठ पड़ जाती है.इस परिवार के किसी सदस्य ने अपने परिवार के अन्य सदस्य के विषय में कोई  अपेक्षा  रखना चाहे तो उसके साथ अपने को दूसरों के प्रति  व्यवहार के विषय में या कुछ करने के विषय में भी स्वाथ्य विचार रखने चाहिए . फिर जव उसे  उस व्यक्ति से  वैसी अपेक्षा जैसा व्यव्हार  नहीं मिलता है तब अपेक्छा रखने बलों के लिए  दुःख का कारन तो बनता ही है .उसके साथ साथ रिश्तों में भी खटास की बू आने लगती है जो बाद में चल के संयुक्त परिवार के सीधी चाल को असर ड़ाल देती है
   संयुक्त पारिवार का  एक सदस्य अगर दूसरे सदस्य से कोई  अपेक्षा रखते है तब वैसी स्थिति में ऐसा  अपेक्षा  दूसरों से रखने बाले परिवार के  सदस्यों को यह भी सोचना और समझना  चाहिए की परिवार के अन्य सदस्यों की भी कुछ अपेक्षाएं उनसे होगी . क्या  उन्होंने उन सदस्यों के अपेक्षाओं को पूरा किया .अगर नहीं किया तो उन सदस्यों की  भी भावना क्या उनके प्रति होगी .
यह उदाहरण का मामला नहीं है .मेरा मानना है की किसी भी व्यक्ति की दूसरों से  अपेक्षा रखना ही कष्ट का कारन होता है . हम अपने में नहीं देखते और  अपेक्षा करते है की दूसरा कोई हमसे अच्छा व्यव्हार करे , मेरी सभी जरूरतों को पूरा करे . यह  अपेक्षा रखते है ,लेकिन वे यह भूल जाते है की मै अपने परिवार की अपेक्षाओं पर  कितना खड़ा उतरा . मेरे यह मानना  है की आप दूसरों से  अपेक्षा करने या रखने के बजाय आप स्वं आपने अंदर झांके और देखे की आप कितने लोगो की  अपेक्षा पर खड़े उतरे है . दूसरे लोगो की आपसे भी काफी  अपेक्षा  होगी या उनलोगों ने आपसे  अपेक्षा की होगी ,तो ऐसी स्थिति में आपको दूसरों से  अपेक्षा करने से पहले अपने आप से यह प्रश्न का उत्तर पाए की मै कितना अन्य के अपेक्षाओं पर खड़ा उतरा .
संयुक्त परिवार में जब हम यह सोचते है की मेरे काम सब करे तो मेरे भलाई सोचे तो मुझे भी पहले देखना होगा की मैंने परिवार के अन्य सदस्यों के लिए कितना किया . जब यह भावना आप में होगो तो संयुक्त परिवार का पौधा अपने आप उन भावनाओ से सिचता हुआ और हरा भरा रहेगा जिसके छांव में संयुक्त परिवार के सभी सदस्य सम्मान ,एकता ,एवम सहजता के साथ रह सकेगे .
ये अलग बात है की संयुक्त परिवार में अगर हमारे चाचा ,चाची ,बड़े या छोटे भाई भाभी मामा मामी ,दादा दादी अर्थात सभी सदस्य के बिच अगर एक दूसरों से  अपेक्षा पर निर्भरता सामान्य रूप से अधिक अगर नहीं रहती है ,तब तक संयुक्त परिवार रूपी गाड़ी निर्वाध  रूप से चलती रहेगी .संयुक्त परिवार का रूप एवं स्वरुप तथा खूबी ही है की संयुक्त रहे ,संयुक्त सोचे ,संयुक्त विकास करे और संयुक्त रूप से सभी सदस्य एक दूसरों की दुःख दर्द एवं सुख का आनंद ले .
                        इस लेख के बिषय में आप की  कोई भी टिप्पणी ,विचार मेरे लिए पथप्रदर्शन का कम करेगी .